ramayan hindi 1 and 2

 यह कथा अवध की है। और बहुत पुरानी है। अवध में सरयू नदी के किनारे एक अति सुंदर नगर था। अयोध्या। सही अर्थों में दर्शनीय। देखने लायक। भव्यता जैसे उसका दूसरा नाम हो! अयोध्या में केवल राजमहल भव्य नहीं था। उसकी एक-एक इमारत आलीशान थी। आम लोगों के घर भव्य थे। सड़कें चौड़ी थीं। सुंदर बाग-बगीचे। पानी से लबालब भरे सरोवर। खेतों में लहराती हरियाली। हवा में हिलती फ़सलें सरयू की लहरों के साथ खेलती थीं। अयोध्या हर तरह से संपन्न नगरी थी। संपन्नता कोने-अंतरे तक बिखरी हुई। सभी सुखी। सब समृद्ध । दुःख और विपन्नता को अयोध्या का पता नहीं मालूम था। या उन्हें नगर की सीमा में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। पूरा नगर विलक्षण था। अद्भुत और मनोरम।


उसे ऐसा होना ही था । वह कोसल राज्य की राजधानी था। राजा दशरथ वहीं रहते थे। उनके राज में दुःख का भला क्या काम ? राजा दशरथ कुशल योद्धा回糕


और न्यायप्रिय शासक थे। महाराज अज के पुत्र महाराज रघु के वंशज रघुकुल के उत्तराधिकारी रघुकुल की रीति-नीति का प्रभाव हर जगह दिखाई देता था। सुख-समृद्धि से लेकर बात-व्यवहार तक। लोग मर्यादाओं का पालन करते थे। सदाचारी थे। पवित्रता और शांति हर जगह थी। नगर में भी। लोगों के मन में भी।


राजा दशरथ यशस्वी थे। उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं थी। राज-सुख था। कमी होने का प्रश्न ही नहीं था। लेकिन उन्हें एक दुःख था। छोटा सा दुःख। मन के एक कोने में छिपा हुआ। वह रह-रहकर उभर आता था। उन्हें सालता रहता था। उनके कोई संतान नहीं थी। आयु लगातार बढ़ती जा रही थी। उनकी तीन रानियाँ थीं कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। रानियों के मन में भी बस यही एक दुःख था। संतान की कमी। जीवन सूना-सूना लगता था । राजा दशरथ से रानियों की बातचीत प्रायः इसी विषय पर आकर रुक जाती थी। राजा दशरथ की चिंता बढ़ती जा रही थी।बहुत सोच-विचारकर महाराज दशरथ ने इस संबंध में वशिष्ठ मुनि से चर्चा की। उन्हें पूरी बात विस्तार से बताई। रघुकुल के अगले उत्तराधिकारी के बारे में अपनी चिंता बताई। मुनि वशिष्ठ राजा दशरथ की चिंता समझते थे। उन्होंने दशरथ को यज्ञ करने की सलाह दी। पुत्रेष्टि यज्ञ। महर्षि ने कहा, आप पुत्रेष्टि यज्ञ करें, महाराज! 44 आपकी इच्छा अवश्य पूरी होगी। "


यज्ञ महान तपस्वी ऋष्यश्रृंग की देखरेख हुआ। पूरा नगर उसकी तैयारी में लगा हुआ था। यज्ञशाला सरयू नदी के किनारे बनाई गई। यज्ञ में अनेक राजाओं को निमंत्रित किया गया। तमाम ऋषि-मुनि पधारे। शंखध्वनि और मंत्रोच्चार के बीच एक-एक कर सबने आहुति डाली। अंतिम आहुति राजा दशरथ की थी।


यज्ञ पूरा हुआ। अग्नि के देवता ने। महाराज दशरथ को आशीर्वाद दिया। कुछ समय बाद दशरथ की इच्छा पूरी हुई। तीनों रानियाँ पुत्रवती हुई। महारानी कौशल्या ने राम को जन्म दिया। चैत्र माह की नवमी के दिन। रानी सुमित्रा के दो पुत्र हुए। लक्ष्मण और शत्रुघ्न । रानी कैकेयी के पुत्र का नाम भरत रखा गया।


राजमहल में खुशी छा गई। नगर में बधाइयाँ बजने लगीं। मंगलगीत गाए गए।हर ओर खुशी उत्सव जैसा दृश्य राजा दशरथ प्रसन्न थे। उनकी मनोकामना पूरी हुई। प्रजा प्रसन्न थी कि दशरथ की चिंता दूर हुई। नगर में बड़ा समारोह आयोजित किया गया। धूमधाम से आयोजन में दूर-दूर से लोग आए। राजा दशरथ ने सबको पूरा सम्मान दिया। उन्हें कपड़े, अनाज और धन देकर विदा किया।


चारों राजकुमार धीरे-धीरे बड़े हुए। वे बहुत सुंदर थे। सुदर्शन। साथ खेलने निकलते तो लोग उन्हें देखते रह जाते। आँखें उनसे हटती ही नहीं थीं। चारों भाइयों में आपस में बहुत प्रेम था। वे अपने बड़े भाई राम की आज्ञा मानते थे। खेलकूद में लक्ष्मण में प्रायः राम के साथ रहते। भरत और शत्रुघ्न की एक अलग जोड़ी थी।


और बड़े होने पर राजकुमारों को शिक्षा-दीक्षा के लिए भेजा गया। उन्होंने कुशल और अपनी विद्या में दक्ष गुरुजनों से ज्ञान अर्जित किया। शास्त्रों का अध्ययन किया। शस्त्र-विद्या सीखी। चारों राजकुमार कुशाग्र-बुद्धि थे। जल्द ही सब विद्याओं में पारंगत हो गए। राम इसमें सर्वोपरि थे। उनमें कई अन्य गुण भी थे। विवेक, शालीनता और न्यायप्रियता । राजा दशरथ को राम सबसे अधिक प्रिय थे। ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण। और इन मानवीय गुणों के कारण भी।बाल रामव


राजकुमार कुछ और बड़े हुए। विवाह योग्य नगर में इसकी चर्चा होने लगी। महाराज दशरथ भी ऐसा ही चाहते थे। अपनी संतानों के लिए सुयोग्य वधुएँ। परिजनों में चर्चा पहले से ही हो रही थी। बाद में पुरोहितों को भी इसमें शामिल कर लिया गया।


अयोध्या का राजमहल। एक दिन ऐसी ही चर्चा चल रही थी। गहन मंत्रणा। तभी एक द्वारपाल घबराया हुआ अंदर आया। उसने सूचना दी कि महर्षि विश्वामित्र पधारे हैं। महाराज दशरथ तत्काल अपना आसन छोड़कर खड़े हो गए। द्वार की ओर बढ़े। महर्षि की अगवानी करने। उन्हें लेकर दरबार में आए। विश्वामित्र को ऊँचा आसन दिया गया।


विश्वामित्र कभी स्वयं राजा थे। बहुत बड़े और बलशाली। बाद में अपना राजपाट छोड़ दिया। संन्यास ग्रहण कर लिया। जंगल चले गए। वहीं उन्होंने अपना आश्रम बनाया। उसे उन्होंने सिद्धाश्रम नाम दिया।


महर्षि के स्वागत-सत्कार के बाद दशरथ ने कहा, "महर्षि, आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ। आप अपने मन की बात कहिए। आपकी आज्ञा का पूरी तरह पालन होगा। "


"राजन! मैं जो माँगने जा रहा हूँ उसे देना आपके लिए कठिन होगा। "'आप आज्ञा दीजिए, महर्षि! मैं उसे पूरा करने के लिए तत्पर हूँ। बिलकुल नहीं हिचकूँगा।"


"मैं सिद्धि के लिए एक यज्ञ कर रहा हूँ। अनुष्ठान लगभग पूरा हो गया है। लेकिन दो राक्षस उसमें बाधा डाल रहे हैं। मैं जानता हूँ कि उन राक्षसों को केवल एक ही व्यक्ति मार सकता है। वह राम हैं। आप अपने ज्येष्ठ पुत्र को मुझे दे दें ताकि यज्ञ पूरा हो," विश्वामित्र ने कहा।


दशरथ पर जैसे बिजली गिर पड़ी। वह अचकचा गए। उन्हें उम्मीद ही नहीं थी कि मुनिवर उनसे राम को माँग लेंगे। उनके ज्येष्ठ पुत्र। उनके सबसे प्रिय। दशरथ चिंता में पड़ गए।


विश्वामित्र दशरथ की दुविधा समझ रहे थे। उन्होंने कहा, "मैं राम को केवल कुछ दिनों के लिए माँग रहा हूँ। यज्ञ दस दिन में संपन्न हो जाएगा।" महाराज दशरथ दुःखी हो गए। पुत्र-वियोग की आशंका से काँप उठे। दरबार में सन्नाटा छा गया। दशरथ की दशा देखकर मंत्री चिंतित थे। पर चुप थे। महर्षि वशिष्ठ शांत थे। इतने में दशरथ काँप कर बेहोश हो गए। होश आया तो डर ने उन्हें फिर जकड़ लिया। मूच्छित होकर दोबारा गिर पड़े। संज्ञा-शून्य पड़े रहे।महर्षि विश्वामित्र का क्रोध बढ़ता जा रहा था। दरबार सशंकित था। किसी अनिष्ट की आशंका से वे कुछ समझ नहीं पा रहे थे। महर्षि और महाराज के बीच संवाद में कुछ बोलना उचित भी नहीं था। मुनि वशिष्ठ चुपचाप आकर महाराज दशरथ के पास खड़े हो गए।


थोड़ी देर बाद दशरथ उठे। स्वयं को सँभालते हुए उन्होंने महर्षि से विनती की, 'महामुनि! मेरा राम तो अभी सोलह वर्ष का भी नहीं हुआ है। वह राक्षसों से कैसे लड़ेगा? राक्षस मायावी हैं। वह उनका छल-कपट कैसे समझेगा? उन्हें कैसे मारेगा? इससे अच्छा तो यही होगा कि आप मेरी सेना ले जाएँ। मैं स्वयं आपके साथ चलूँ। राक्षसों से युद्ध करूँ।' 11


महर्षि विश्वामित्र ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। क्रोधित थे, पर उसे व्यक्त नहीं कर रहे थे। उन्हें अपने यज्ञ के नियम याद थे। क्रोध करने से यज्ञ खंडित हो जाता। अनुष्ठान अधूरा रह जाता।


"मैं राम के बिना नहीं रह सकता, महामुनि! एक पल भी नहीं। आप राम को छोड़कर जो चाहें माँग लें। उसे मत ले जाइए। मैं राम को नहीं दूंगा। बिलकुल नहीं। वह मेरी बुढ़ापे की संतान है। मैं उससे बहुत प्रेम करता हूँ। "महर्षि का क्राध भभक मंत्रीगण और ऋषि-मुनि सकते में आ गए। " आप रघुकुल की रीति तोड़ रहे हैं, राजन। वचन देकर पीछे हट रहे हैं। यह बरताव कुल के विनाश का सूचक है। आप जानते हैं कि मैं स्वयं दुष्ट राक्षसों का संहार कर सकता था। लेकिन मैंने संन्यास ले लिया है। अगर आप राम को नहीं देंगे तो मैं यहाँ से खाली हाथ लौट जाऊँगा।"


बात बिगड़ती देखकर मुनि वशिष्ठ आगे आए। महाराज दशरथ को समझाया। राम की शक्ति के बारे में। प्रतिज्ञा तोड़ने के संबंध में। महर्षि विश्वामित्र के साथ रहने पर राजकुमार राम को होने वाले लाभ के बारे में।


“राजन, आपको अपना वचन पूरा करना चाहिए। रघुकुल की रीति यही है। प्राण देकर भी आपके पूर्वजों ने वचन निभाया है। आप राम की चिंता न करें। महर्षि के होते उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।


महाराज दशरथ की चिंता कुछ कम हुई। पर मन अब भी खिन्न था। पुत्र- बिछोह का दुःख सभी तर्कों पर भारी पड़ रहा था।


गुरु वशिष्ठ ने कहा, “महाराज, महर्षि विश्वामित्र सिद्ध पुरुष हैं। तपस्वी हैं। अनेक गुप्त विद्याओं के जानकार हैं। वह कुछ सोचकर ही यहाँ आए हैं। राम उनसे अनेकनयी विद्याएँ सीख सकेंगे। आप राम को महर्षि विश्वामित्र के साथ जाने दें। राम को उन्हें सौंप दें। "


दशरथ ने मुनि वशिष्ठ की बात दुःखी मन से स्वीकार कर ली। लेकिन वह राम को अकेले नहीं भेजना चाहते थे। उन्होंने विश्वामित्र से आग्रह किया। कहा कि वे राम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण को भी ले जाएँ। महर्षि विश्वामित्र ने महाराज दशरथ का यह आग्रह स्वीकार कर लिया।


राम और लक्ष्मण को तत्काल दरबार में बुलाया गया। महाराज दशरथ ने उन्हें अपने निर्णय की सूचना दी। दोनों भाइयों ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। सिर झुकाकर । आदर सहित।इसकी सूचना माता कौशल्या को दी गई। बताया गया कि राम और लक्ष्मण वन जा रहे हैं। महर्षि विश्वामित्र के साथ। नितांत गंभीर माहौल में स्वस्तिवचन हुआ। शंखध्वनि हुई। नगाड़े बजे । महाराज दशरथ ने भावुक होकर दोनों पुत्रों का मस्तक सँघकर उन्हें महर्षि को सौंप दिया। दोनों राजकुमार बिना विलंब किए महर्षि के साथ चल पड़े। बीहड़ और भयानक जंगलों की ओर। विश्वामित्र आगे-आगे चल रहे थे। राम उनके पीछे थे। लक्ष्मण राम से दो कदम पीछे। अपने धनुष सँभाले हुए। पीठ पर तुणीर बाँधे। कमर में तलवारें लटकाए।


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राजमहल से निकलकर महर्षि विश्वामित्र सरयू नदी की ओर बढ़े। दोनों राजकुमार साथ थे। उन्हें नदी पार करनी थी। आश्रम पहुँचने के लिए। विश्वामित्र ने अयोध्या के निकट नदी पार नहीं की। दूर तक सरयू के किनारे-किनारे चलते रहे। दक्षिणी तट पर। उसी तट पर, जिस पर अयोध्या नगरी थी। वे चलते रहे। नदी के घुमाव के साथ-साथ राजमहल पीछे छूट गया। उसकी आखिरी बस्ती भी निकल गई। चलते-चलते एक तीखा मोड़ आया तो सब कुछ दृष्टि से ओझल हो गया।


राम और लक्ष्मण ने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनकी नज़र सामने थी। महर्षि विश्वामित्र के सधे कदमों की ओर। सूरज की चमक धीमी पड़ने लगी। शाम होने को आई। राजकुमारों के चेहरों पर थकान का कोई चिह्न नहीं था। उत्साह था। वे दिन भर पैदल चले थे। और चलने को तैयार थे।


महर्षि अचानक रुके। उन्होंने आसमान पर दृष्टि डाली। चिड़ियों के झुंड अपनेबसेरे की ओर लौट रहे थे। आसमान मटमैला लाल हो गया था। चरवाहे लौट रहे थे। गायों के पैर से उठती धूल में आधे छिपे हुए।


'हम आज रात नदी तट पर ही विश्राम करेंगे, " महर्षि ने पीछे मुड़ते हुए कहा। दोनों राजकुमारों के चेहरे के भाव देखते हुए विश्वामित्र हलका-सा मुसकराए। राम के निकट आते हुए उन्होंने कहा, “मैं तुम, दोनों को कुछ विद्याएँ सिखाना चाहता हूँ। इन्हें सीखने के बाद कोई तुम पर प्रहार नहीं कर सकेगा। उस समय भी नहीं, जब तुम नींद में रहो। ".


राम और लक्ष्मण नदी में मुँह हाथ धोकर लौटे। महर्षि के निकट आकर बैठे। विश्वामित्र ने दोनों भाइयों को 'बला- अतिबला' नाम की विद्याएँ सिखाई। रात में वे लोग वहीं सोए। तिनकों और पत्तों का बिस्तर बनाकर नींद आने तक महर्षि उनसे बात करते रहे।


सुबह हुई। यात्रा फिर शुरू हुई। मार्ग वही था। सरयू नदी के किनारे-किनारे।चलते-चलते वे एक ऐसी जगह पहुँचे, जहाँ दो नदियाँ आपस में मिलती थीं। उस संगम की दूसरी नदी गंगा थी। महर्षि अब भी आगे चल रहे थे। लेकिन एक अंतर आ गया था। राम-लक्ष्मण अब दूरी बनाकर नहीं चलते थे। महर्षि के ठीक पीछे थे ताकि उनकी बातें ध्यान से सुन सकें। रास्ते में पड़ने वाले आश्रमों के बारे में। वहाँ के लोगों के बारे में। वृक्षों-वनस्पतियों के संबंध में। स्थानीय इतिहास उसमें शामिल होता था।


आगे की यात्रा कठिन थी। जंगलों से होकर। उससे पहले उन्हें नदी पार करनी थी। रात में ऐसा करना महर्षि विश्वामित्र को उचित नहीं लगा। तीनों लोग वहीं रुक गए। संगम पर बने एक आश्रम में। अगली सुबह उन्होंने नाव से गंगा पार की।


नदी पार जंगल था। घना। दुर्गम। सूरज की किरणें धरती तक नहीं पहुँचती थीं. इतना घना। वह डरावना भी था। हर ओर से झींगुरों की आवाज़। जानवरों की दहाड़ । कर्कश ध्वनियाँ। राम और लक्ष्मण को आश्वस्त करते हुए महर्षि ने कहा, "ये जानवर और वनस्पतियाँ जंगल की शोभा हैं। इनसे कोई डर नहीं है। असली खतरा राक्षसी ताड़का से है। वह यहीं रहती है। तुम्हें वह खतरा हमेशा → लिए देना है। "ताड़का के डर से कोई उस वन में नहीं आता था। जो भी आता, ताड़का उसे मार डालती। अचानक आक्रमण कर देती। उसका डर इतना था कि उस सुंदर वन का नाम 'ताड़का वन' पड़ गया था।


राम ने महर्षि की आज्ञा मान ली। धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई। और उसे एक बार खींचकर छोड़ा। इतना ताड़का को क्रोधित करने के लिए बहुत था। टँकार सुनते ही क्रोध से बिलबिलाई ताड़का गरजती हुई राम की ओर दौड़ी। दो बालकों को देखकर उसका क्रोध और भड़क उठा। जंगल में जैसे तूफ़ान आ गया। विशालकाय पेड़ काँप उठे। पत्ते टूटकर इधर-उधर उड़ने लगे। धूल का घना बादल छा गया। उसमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता था। फिर ताड़का ने पत्थर बरसाने शुरू कर दिए। राम ने उस पर बाण चलाए। लक्ष्मण ने भी निशाना साधा। ताड़का बाणों से घिर गई। राम का एक बाण उसके हृदय में लगा। वह गिर पड़ी। फिर नहीं उठ पाई।


विश्वामित्र बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने राम को गले लगा लिया। उन्होंने दोनों राजकुमारों को सौ तरह के नए अस्त्र-शस्त्र दिए। उनका प्रयोग करने की विधि बताई। उनका महत्त्व समझाया।महर्षि का आश्रम वहाँ से अधिक दूर नहीं था। लेकिन तब तक रात हो चली थी। विश्वामित्र ने वह दूरी अगले दिन तय करने का निर्णय लिया। ताड़का मर चुकी थी। उसका भय नहीं था। तीनों ने रात वहीं बिताई। ताड़का वन में, जो अब पूरी तरह भयमुक्त था।


सुबह जंगल बदला हुआ था। अब वह ताड़का वन नहीं था। क्योंकि ताड़का नहीं थी। भयानक आवाजें गायब हो चुकी थीं। पत्तों से गुजरती हवा थी। उसकी सरसराहट का संगीत था। चिड़ियों की चहचहाहट थी। शांति थी। तसवीर बदल गई थी।


सिद्धाश्रम का अंतिम पड़ाव था महर्षि का आश्रम। रास्ता छोटा भी था। मनोहारी भी। प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते तीनों लोग जल्दी ही आश्रम पहुँच गए। आश्रमवासियों ने उनकी अगवानी की। अभिनंदन किया। उनकी प्रसन्नता दुगुनी हो गई थी। महर्षि विश्वामित्र के आश्रम लौटने की खुशी । राम-लक्ष्मण के आगमन का सुख!


विश्वामित्र यज्ञ की तैयारियों में लग गए। अनुष्ठान प्रारंभ हुआ। आश्रम की रक्षा की जिम्मेदारी राम-लक्ष्मण को सौंपकर महर्षि थे। अनुष्ठान अपने अंतिम चरण में था। पूरा होने वाला था। कुछ ही दिनों में।पाँच दिन तक सब ठीक-ठाक चलता रहा। शांति से निर्विघ्न। लगता था कि | राजकुमारों को उपस्थिति ने ही राक्षसों को भगा दिया है। राम और लक्ष्मण ने यज्ञ पूरा होने तक न सोने का निर्णय किया। वे लगातार जागते रहे। चौकस रहे। कमर में तलवार। पीठ पर तुणीर। हाथ में धनुष। प्रत्यंचा चढ़ी हुई। हर स्थिति के लिए तैयार


अनुष्ठान का अंतिम दिन अचानक भयानक आवाजों से आसमान भर गया। सुबाहु और मारोच ने राक्षसों के दल-बल के साथ आश्रम पर धावा बोल दिया। मारीच क्रोधित था। यज्ञ के अलावा भी। इस बात से कि राम-लक्ष्मण ने उसकी माँ को मारा था। ताड़का को।


राम ने राक्षसों का हमला होते ही कार्रवाई की। धनुष उठाया और मारीच को निशाना बनाया। मारीच बाण लगते ही मूर्च्छित हो। गया। बाण के वेग से बहुत दूर जाकर गिरा। समुद्र के किनारे वह मरा नहीं। जब होश आया तो उठकर दक्षिण दिशा की ओर भाग गया। राम का दूसरा बाण सुबाहु को लगा। उसके प्राण वहां निकल गए। सुबाहु के मरने पर राक्षस सेना में भगदड़ मच गई। वे चीखते-चिल्लाते भागे। कुछ लक्ष्मण के बाणों का शिकार हुए। अन्य जान बचाकरभाग खड़े हुए। महर्षि विश्वका अनुष् संपन्न हुआ।


राम ने महर्षि को प्रणाम करते हुए पूछा, "अब हमारे लिए क्या आज्ञा है, मुनिवर?" महर्षि ने राम को गले लगाया। कहा, "हम लोग यहाँ से मिथिला जाएँगे। महाराज जनक के वहाँ विदेहराज के दरबार में मैं चाहता हूँ कि तुम दोनों मेरे साथ चलो। उनके आयोजन में हिस्सा लेने। महाराज के पास एक अद्भुत शिव-धनुष है। तुम भी उसे देखो। "


राम और लक्ष्मण अगली यात्रा को लेकर उत्साहित थे। नए स्थान देखने और जानने का अवसर! सोन नदी पार कर विश्वामित्र मिथिला की सीमा के पास पहुँचे। अपने शिष्यों और राजकुमारों के साथ। वे गौतम ऋषि के आश्रम से होते हुए नगर में पहुँचे।


राजा जनक ने महल से बाहर आकर विश्वामित्र का स्वागत किया। तभी उनकी दृष्टि राजकुमारों पर पड़ी। विदेहराज चकित रह गए। वे स्वयं को रोक नहीं पाए। महर्षि से पूछा, “ये सुंदर राजकुमार कौन हैं? मैं इनके आकर्षण से खिंचता जा रहा हूँ।"


"ये राम और लक्ष्मण हैं। महाराज दशरथ के पुत्र में इन्हें अपने साथ लाया हैं। आपका अद्भुत धनुष दिखाने।"विदेहराज में महर्षि, उनके शिष्यों और राजकुमारों के नेकी की एक सुंदर उद्यान में आमंत्रित लोग और शाला में उपस्थित हुए। वहाँ महर्षि में फिरका उल्लेख किया जनक ने अपने अनुचरों को दी, "शिव धनुष को यज्ञशाला में लाया जाए।"


शिव- धनुष सचमुच विशाल था। लोहे की पेटी में रखा हुआ था। पटी लगे हुए थे। आठ पहिए। उसे उठाना लगभग असंभव था। पहियों के सहारे खाकर उसे एक से दूसरी जगह ले जाया जाता था। अनुचर मुश्किल से इसे खींचते हुए यहा में ले आए। धनुष देखते ही एक पल के लिए उदास हो गए।


उन्होंने कहा, "मुनिवर! मैंने प्रतिज्ञा की है। अपनी पुत्री सीता के विवाह के संबंध में जो यह धनुष उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसी के साथ सीता का विवाह होगा। अनेक राजकुमारों ने प्रयास किया और लज्जित हुए। उठाना तो दूर, वे इसे हिला तक नहीं सके। प्रत्यंचा क्या


विदेहराज का संकेत समझकर महर्षि विश्वामित्र ने राम से कहा, "उठी वत्स! धनुष देखो।"रामने सिर झुकाकर गुरु की आज्ञा स्वीकार की। आगे बढ़े। पेटी का ढक्कन खोल दिया। राम ने पहले धनुष देखा फिर महर्षि को गुरु का संकेत मिलने पर राम ने वह विशाल धनुष सहज ही उठा लिया। यज्ञशाला में उपस्थित सभी लोग हतप्रभ थे। "इसको प्रत्यंचा चढ़ा दूँ, मुनिवर?" राम ने पूछा।


'अवश्य। यदि ऐसा कर सकते हो। "


विदेहराज चकित थे। राम ने आसानी से धनुष झुकाया। ऊपर से दबाकर प्रत्यंचा खींची। दबाव से धनुष बीच से टूट गया। उसके दो टुकड़े हो गए। बच्चों के खिलौने की तरह। यज्ञशाला में सन्नाटा छा गया। सब चुप थे। एक-दूसरे की ओर देख रहे थे।


सभागार की चुप्पी महाराज जनक ने तोड़ी। उनकी खुशी का ठिकाना न था। उन्हें सीता के लिए योग्य वर मिल गय था। उनकी प्रतिज्ञा पूरी हुई। जनकराज ने कहा, "मुनिवर! आपकी अनुमति हो तो मै महाराज दशरथ के पास संदेश भेजूँ। बारात लेकर आने का निमंत्रण। यह शुभ संदेश उन्हें शीघ्र भेजना चाहिए।"


महर्षि की अनुमति से दूत अयोध्या भेजे गए। सबसे तेज चलने वाले रथों से। इस बीच जनकपुर में धूम मच गई बारात के स्वागत की तैयारियाँ होने लगीं। नगर की प्रसन्नता चरम पर थी।महाराज जनक का संदेश मिलते ही अयोध्या में भी खुशी छा गई। आनन-फानन में बारात तैयार हुई। हाथी, घोड़े, रथ, सेना। बारात को मिथिला पहुँचने में पाँच दिन लग गए।


जनकपुरी जगमगा रही थी। हर मार्ग पर तोरणद्वार। हर जगह फूलों की चादर। एक-एक कोना सुवासित। हर घर के प्रवेशद्वार पर वंदनवार। एक-एक घर से मंगलगीत। मुख्यमार्ग पर दर्शकों की अपार भीड़। खिड़कियों और छज्जों से झाँकती महिलाएँ। एक नज़र राम को देख लें। राम-सीता की जोड़ी दिख जाए।


विवाह से ठीक पहले विदेहराज ने महाराज दशरथ से कहा, "राजन! राम ने मेरी प्रतिज्ञा पूरी कर बड़ी बेटी सीता को अपना लिया। मेरी इच्छा है कि छोटी पुत्री उर्मिला का विवाह लक्ष्मण से हो जाए। मेरे छोटे भाई कुशध्वज की भी दो पुत्रियाँ हैं- माँडवी और श्रुतकीर्ति। कृपया उन्हें भरत और शत्रुघ्न के लिए स्वीकार करें। " राजा दशरथ ने यह प्रस्ताव तत्काल


मान लिया। विवाह के बाद बारात कुछ दिन जनकपुरी में रुकी। बाराती बहुओं को लेकर अयोध्या लौटे तो रानियों ने पुत्र वधुओं की आरती उतारी। स्त्रियों ने फूल बरसाए। शंखध्वनि से गलियाँ गूंज उठीं। यह आनंदोत्सव लगातार कई दिनों तक चलता रहा।

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